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Monday 27 March 2017

जज्बा और जुनून का दूसरा नाम ‘‘गोदावरी सिंह’’, 35 साल से जुटे हैं काशी की अनोखी कला को बचाने में

कहते हैं एक समाज दुनिया का है, एक समाज देश का, एक अमीरों का, एक गरीबों का और एक जाति का समाज है। लेकिन इन सब समाजों से भिन्न एक समाज है बनारस का। सबसे अलग सबसे अलहदा। धर्म, संस्कृति, संगीत, साहित्य, कला और इन सबके साथ हर सांस में बहने वाली गंगा। दुनिया के सबसे पुराने शहरों में शुमार इस नगरी की हर चीज़ अलग और अपने ढंग की है। सोलह महाजनपदों में आने वाले इस शहर की हवा में कुछ तो ऐसा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम करते लोगों का उत्साह कभी कम नहीं होता। ऐसी ही एक कला है जिस पर हर बनारसी को फ़क्र है। आज भी उस कला का डंका पूरी दुनिया में बजता है। इस कला ने पूरी दुनिया में बनारस को एक अलग पहचान दी। काष्ट कला यानी लकड़ी के खिलौने का कारोबार। जी हां, हमारी नई पीढ़ी के लिए लकड़ी के खिलौने जरुर नए हों, लेकिन हममें से बहुत से ऐसे लोग होंगे, जिनका बचपन इन खिलौनों के साथ बीता होगा। कभी गुड्डे -गुड़िया तो कभी राजा-रानी की शक्ल में ये खिलौने बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करते थे। घर की आंगन में लट्टू नचाते और खड़खड़ऊवा बजाते बच्चों का शोर आज भी हमारे कानों में सुनाई पड़ता है। लेकिन वो दिन अब लद चूके हैं। आधुनिकता के इस दौर में लकड़ी के खिलौनों की जगह प्लास्टिक के बने महंगे खिलौनों ने ले ली। बच्चों की पसंद लकड़ी के बने गुड्डे गुड़िया नहीं बल्कि प्लास्टिक के बने ट्वॉय और टैडीवियर्स है। बदले दौर का ही असर है कि काशी की ये नायाब कला लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है। ऐसे में दम तोड़ते खिलौना उद्योग को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं 75 साल के गोदावरी सिंह। उम्र के आखिर मंजिल पर खड़े गोदावरी सिंह को यकीन है वक्त फिर बदलेगा। फिर घर-घर में लकड़ी के खिलौने होंगे। गोदावरी सिंह के संघर्ष की गाथा आपको बताए, इससे पहले बनारस के इस बेमिसाल कला से आपको वाकिफ करा देते हैं....


दरअसल बनारस दुनिया का ऐसा इकलौता शहर है, जहां दस्तकारी के साथ हाथ का काम करने के तकरीबन 60 तरह के दूसरे कारोबार सदियों से देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपनी धाक जमाये हुए थे, लेकिन आज इनमें से ज़्यादातर कारोबार या तो बंद हो गए या बंद होने की कगार पर हैं। इन्हीं में से एक है बनारस का लकड़ी के खिलौनों का कारोबार। अगर हम इन खिलौनों की बात करें तो इनकी बनावट इतनी सुन्दर होती है कि ये आपसे बात करते नज़र आते हैं। यही वजह है कि अपनी तरफ बरबस खींचते ये खिलौने अगर बोल सकते तो अपने गढ़ने वाले की बेबसी भी ज़रूर बयां करते। इन खिलौनों को गढ़ने वाले कलाकार आज मुफलिसी में जी रहे हैं। कभी अरबों में होने वाला ये कारोबार अब लाखों तक सिमट गया है। 


ऐसे में गोदावरी सिंह संकटमोचक बन कर इस पुराने कारोबार को बचाने में जुटे हैं। इस कारोबार की उखड़ती सांसों को बचाने के लिए गोदावरी सिंह ने हर वो जतन किए, जो उनसे हो पा रहा है। गोरखपुर के रहने वाले गोदावरी सिंह आज से लगभग साठ साल पहले बनारस के कश्मीरीगंज मोहल्ले में पहुंचे थे। गोदावरी सिंह के दादा और उनके पिता इसी कारोबार से जुड़े थे। पिता और दादा की सरपरस्ती में ही गोदावरी सिंह ने इस कारोबार की बारीकियों को सीखा। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चला, लेकिन फिर अचानक खिलौनों का शोर गुम होने लगा। मंदी और आधुनिकता की काली छाया ने काशी के इस कारोबार पर ग्रहण लगा दिया। 1980 के दशक के बाद से लकड़ी के खिलौना का कारोबार तेजी से घटने लगा। ऐसे में इस डूबते कारोबार को बचाने के लिए गोदावरी सिंह आगे आए। उन्होंने इस उद्योग को अपनी जिंदगी का मिशन बनाया। 75 साल के बुजुर्ग गोदावरी सिंह करीब 35 सालों से दिन रात, खत्म होती इस कला को बचाने में लगे हैं।


गोदावरी सिंह हर उस दरवाजे पर दस्तक देते हैं, जहां से उन्हें थोड़ी सी भी उम्मीद की किरण नजर आती है। गोदावरी सिंह हर उस शख्स से मिलते हैं, जिससे उन्हें मदद की आस जगती है। बनारस में ट्वॉय मैन के रुप में मशहूर गोदावरी सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दरबार में अर्जी लगाई। उन्होंने अपने सांसद और देश के पीएम नरेंद्र मोदी से लुप्त होती इस कला को बचाने की गुहार लगाई। गोदावरी सिंह ने योरस्टोरी को बताया, 
"पिछले एक साल में मैं नरेंद्र मोदी से दो बार मिल चुका हूँ। काशी प्रवास के दौरान मोदी जी ने मुझे मिलने के लिए बुलाया था। मुलाकात के दौरान उन्होंने मेरी बातें गौर से सुनीं और इस कारोबार को बचाने का वादा किया, लेकिन अफसोस है कि अब तक कोई ठोस काम नहीं हुआ है। हालांकि मुझे उम्मीद है कि मोदी साहब मेरे जैसे हज़ारों कारीगरों को मायूस नहीं करेंगे" 


दरअसल लकड़ी के खिलौना कारोबार से बनारस के लगभग तीन हजार कारीगर जुड़े हैं। शहर के कश्मीरीगंज, खोजवां, भेलूपुर, सरायनंदन इलाके में ये कारोबार दशकों से होता चला आया है। लेकिन अब इन कारीगरों के आगे रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है। इस कारोबार के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण सरकार की उदासीनता है। पिछले कुछ सालों से इन खूबसूरत खिलौनों को बनाने में इस्तेमाल होने वाली कोरइया की लकड़ी की कटाई पर सरकार ने रोक लगा दी। हैरानी की बात यह कि इस लकड़ी का किसी दूसरी चीज में इस्तेमाल भी नहीं होता, बावजूद इसके इस पर रोक लगा दी गई। लिहाजा अब यूकेलिप्टस की लकड़ी का इस्तेमाल होने लगा जिससे खिलौने से चमक गायब हो गई.. इसका परिणाम यह हुआ कि जो खिलौने सदियों से बच्चों को पसंद आते थे, अचानक वो अपनापन खत्म हो गया। गोदावरी सिंह बताते हैं, "सरकार अगर चाहे तो ये कारोबार फिर से खड़ा हो सकता है, लेकिन उसकी नीतियों से शायद ऐसा नहीं लगता।" 


इन कठिनाईयों के बावजूद गोदावरी सिंह हार मानने वालों में नहीं है। पिछले 35 सालों से उनका संघर्ष लगातार जारी है। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि साल 2005 में गणतंत्र दिवस की झांकी में यूपी की ओर से लकड़ी के खिलौना उद्योग को थीम बनाया गया। इस झांकी में खुद गोदावरी सिंह अपनी पत्नी के साथ मौजूद थे। बेहतरीन कला के लिए इस झांकी को तीसरा स्थान मिला और पूरे देश में यूपी का डंका बजा। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें सम्मान से नवाजा। कला के क्षेत्र में उत्कृष्ठ काम के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और चंद्रशेखर ने भी सम्मानित किया। 


गोदावरी सिंह का जुनून और जज्बा ही है कि उन्होंने इस कला को बचाने के लिए एक समिति बनाई। खुद के पैसे से 300 से ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित किया। उन्हें खिलौना बनाने में इस्तेमाल किए जाने वाले औजार दिए। मशीनें लगवाई और आज हजारों लोगों के लिए मसीहा बन चुके हैं। गोदावरी सिंह के संघर्षों का ही असर है कि अब लकड़ी का खिलौना कारोबार बनारस के कारीगरों की बौद्धिक संपदा बन चुकी है। मार्च 2015 में कुछ समाजिक संगठनों की मदद से गोदावरी सिंह ने इस कला को पेटेंट करा लिया। गोदावरी सिंह की चाहत यही है कि ये कारोबार फिर से खड़ा हो जाए। इसके लिए गोदावरी सिंह घर की नई पीढ़ी को आगे ला रहे हैं। अपने बूढ़े नाना के ख्वाबों को पूरा करने के लिए उनका नाती उदयराज लगा हुआ है। एमबीए की पढ़ाई करने वाला उदयराज अब इस कारोबार को हाईटेक करने में लगा हुआ है। आम तौर पर इस कारोबार में गरीब और मजदूर तबके के लोग जुड़े हैं, लिहाजा इसकी मार्केटिंग और ब्रांडिंग नहीं होती पाती।


लेकिन जब से गोदावरी सिंह की नई पीढ़ी इस कारोबार से जुड़ी है, उन्हें एक उम्मीद बंधी है। गोदावरी सिंह की मेहनत का ही असर है कि वाराणसी के फाइव स्टार होटल गेटवे इन ने भी अपनी एक गैलरी काशी की इस अनोखी कला के नाम कर दिया। अब पूरे साल गैलरी में इस कला की नुमाइश होती है। यही कारण है कि बाहर से आने वाले सैलानी भी लकड़ी के खिलौनों में दिलचस्पी ले रहे हैं। यकीनन ये कला हमेशा ही गोदावरी सिंह की मेहनत और उनके जज्बे की कर्जदार रहेगी। उम्मीद है कि काशी की इस कला में गोदावरी सिंह ने जो रंग भरे है, वक्त के साथ वो और गाढ़ा होता जाएगा।

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